एक बार की बात है, स्वामी रामानुजाचार्य शरीर से काफी कमजोर थे । वह रोजाना गंगा स्नान के बाद ही कोई काम करते थे । घाट की सीढ़ियां बहुत ऊँची थी इसलिए उन्हें चढ़ने और उतरने में काफी दिक्कत होती थी । वह जाते समय एक ब्राह्मण की मदद लेते और लौटते समय एक निम्न जाति के एक व्यक्ति के कंधे पर हाथ रख कर ऊपर आते । उनके इस व्यवहार को साधु संत उचित नहीं मानते थे । लेकिन संकोचवश उनसे कुछ कह नहीं पाते थे । एक बार एक शिष्य से रहा नहीं गया और उसने कह ही दिया, "स्वामीजी, आपके स्नान का क्या लाभ ? आप स्नान से पहले तो ब्राह्मण की मदद लेते है लेकिन शुद्ध होकर लौटते समय आप निम्न जाति के आदमी के कंधो का सहारा लेते है । इससे तो आप स्नान के बाद भी अपवित्र रहते है ।" स्वामी से मुस्कुराते हुए बोले, 'यह तुम्हारे मन का भ्रम है बेटा । नहाने में केवल मेरे ऊपरी शरीर का मैल धुलता है । शरीर के अंदर का मैल तो वैसे का वैसा ही रहता है । यह तो उस व्यक्ति के साथ आने पर ही धुलता है, जिसे तुम नीची जाति का कहते हो । उसे गले लगा कर में समानता का सन्देश देता हूँ । इससे मेरा मन शुद्ध हो जाता है |' स्वामी जी के मुख से ऐसे शब्द सुनकर वह शिष्य आगे कुछ बोल ही ना सका ।
जीवन मंत्र - भेद भाव रखना गलत है तथा तन और मन दोनों को शुद्ध रखे |